नई दिल्ली ।। लोकतंत्र नागरिकों की इच्छाओं, आकांक्षाओं और मानवता के विकास को हासिल करने का एक सशक्त साधन है। लोकतंत्र अपनी प्रक्रिया में एक लक्ष्य है। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय, राष्ट्र की शक्तियों, सामाजिक संगठन और व्यक्ति की भागीदारी और सहयोग से लोकतंत्र के आदर्शो को वास्तवकिता में बदला जा सकता है।

लोकतंत्र की इसी महत्ता को रेखांकित करते हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 2007 में अतंर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस की स्थापना की और विश्व में पहली बार 15 सितम्बर 2008 को यह दिवस मनाने की शुरुआत हुई। लोकतंत्र दिवस की स्थापना करते हुए महासभा ने अपने प्रस्ताव में कहा, “देशों के लोकतंत्र के लक्षण एक समान हैं लेकिन लोकतंत्र का कोई एक आदर्श रूप नहीं है और लोकतंत्र किसी खास देश अथवा क्षेत्र से जुड़ा नहीं है।”

विश्व में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करने में अंतर्राष्ट्रीय संसदों के संगठन अंतर-संसदीय संघ (आईपीयू) महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वर्ष 1889 से आईपीयू विश्व भर के संसदों में संवाद कायम करने के लिए एक केंद्र बिंदु के रूप में लोगों के बीच शांति एवं सहयोग कायम करने के लिए काम कर रहा है।

भारतीय लोकतंत्र की अगर बात करें तो यहां जीवंत लोकतंत्र है। यहां की संसदीय प्रणाली लोकतांत्रिक है और जनता अपने बीच से योग्य उम्मीदवारों को चुनकर संसद में भेजती है जहां सांसदों के जरिए उसकी आवाज, आकांक्षा और विचार ध्वनित होते हैं।

आजादी के बाद ऐसे कई मौके आए जब भारतीय लोकतंत्र को चुनौतियां मिलीं। जनता के अधिकारों को चुनौती दी गई, लोकतांत्रिक मूल्यों के हनन की कोशिशें हुईं। इसका सशक्त उदाहरण 25 जून 1975 को देखने को मिला जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोगों के मूलभूत अधिकारों को चुनौती देते हुए देश में आपातकाल लागू कर दिया। गांधी का यह कदम लोकतंत्र के इतिहास में काला अध्याय माना जाता है।

गांधी के इस तानाशाही रवैये का जवाब जनता ने आपातकाल के बाद हुए आम चुनावों में दिया और उनकी कांग्रेस पार्टी को भारी हार का सामना करना पड़ा। यही नहीं, आतंकवाद और नक्सल प्रभावित राज्यों के चुनावों में बढ़ते मतदान का प्रतिशत लोगों के लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्था में अगाध विश्वास का ही संकेत देता है। विषम परिस्थितियों में और सशक्त रूप में उभरना भारतीय लोकतंत्र की पहचान रही है।

उदारीकरण और बाजारवाद के फैलाव के बाद ऐसी बुराइयां तेजी से उभरी हैं जिन्होंने लोकतंत्र को चुनौती दी है। समाज को तेजी से अपने चपेट में लेते भ्रष्टाचार ने चौतरफा नुकसान किया है। राजनीतिक इच्छा शक्ति में कमजोरी के चलते इस पर रोक लगाने में सरकार असफल साबित हो रही है।

ऐसी स्थिति में सामाजिक और गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) ने महसूस किया है कि लोकतांत्रिक प्रणाली को मजबूत करने के लिए राजनीतिक सुधारों और प्रशासन में पारदर्शिता की जरूरत है। वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता और गांधीवादी अन्ना हजारे और उनकी टीम के सदस्यों अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, शांति भूषण और प्रशांत भूषण ने सरकार को सलाह दी है कि कानून बनाने में जनता की राय जरूरी है।

भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन ने अपने अधिकारों के प्रति लोगों को जिस प्रकार एकजुट किया उसे लोकतांत्रिक मूल्यों के विजय के रूप में ही देखा गया। इस आंदोलन में लोकतांत्रिक मूल्यों की लड़ाई में कुछ ऐसे पक्ष भी उभरे जिन्होंने नए विमर्श की शुरुआत की है।

वैश्विक और क्षेत्रीय स्तर पर लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों को प्रतिस्थापित करने में भारत हमेशा अग्रणी भूमिका निभाई है। इस क्रम में गत नौ से 12 जुलाई तक नई दिल्ली में आयोजित दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) देशों के स्पीकरों और सांसदों में 5वें सम्मेलन में लोकतांत्रिक प्रणाली को और मजबूत बनाने का संकल्प लिया गया। सम्मेलन में दो महत्वपूर्ण विषयों-लोकतंत्र को बढ़ावा देने और दक्षिण एशिया में विकास पर सांसदों और स्पीकरों ने अपने विचार रखे।

समापन समारोह की अध्यक्षता करते हुए लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने कहा कि लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करना संसद एवं सांसदों का कर्तव्य है। साथ ही उन्होंने व्यक्ति के अधिकारों के संरक्षण और मूल्यों की सुरक्षा करने में एक-दूसरे के अनुभवों से सीखने की आवश्यकता पर भी जोर दिया।

भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों और अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाने का काम कई गैर सरकारी संगठन प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से कर रहे हैं। इस दिशा में बेंगलुरू स्थित सोसायटी ‘पब्लिक अफेयर्स सेंटर’ और स्वाभिमान ट्रस्ट ने वर्ष 2000 में ‘चिल्ड्रेंस मूवमेंट फार सिविक अवेयरनेस’ (सीएमसीए) एक स्वायत्त संस्थान की शुरुआत की।

[आलोक कुमार राव]

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