राजनीतिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रहे नेपाल की कमान अब साम्यवादी चिंतक और नपी-तुली भाषा में बात करने वाले बाबूराम भट्टाराई के हाथों में है। नेपाल में माओवादी संघर्ष के दौरान भट्टाराई ही अपनी पार्टी के सर्वप्रिय चेहरा थे।


नेपाल में शुरू हुए जनसंघर्ष के दौरान उनको लगभग एक दशक तक भूमिगत होना पड़ा, लेकिन यहीं वह समय था जब बाबूराम माओवादियों के बेहद लोकप्रिय और सर्वमान्य नेता बन गये।


नेपाल की जनवादी पार्टी जब तक भूमिगत होकर कार्य करती रही, तब तक भट्टाराई ही माओवादियों के स्पष्ट नेता रहे, क्योंकि इस दौरान पुष्प कमल दहल कभी सामने नहीं आये। पार्टी का मत रखने व किसी वार्ता में पार्टी का नेतृत्व करने के लिए भट्टाराई ही हमेशा आगे रहे। एक तरह से अपनी पार्टी के लिए प्रमुख वार्ताकार व वक्ता के रूप में कार्य करते रहे हैं।


बतौर प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने से पहले भट्टाराई सिर्फ एक बार ही सरकार में रहे हैं। जब पार्टी प्रमुख पुष्प कमल दहल का शासन था, तो उनके कार्यकाल के दौरान वह वित्त मंत्री थे। वित्त मंत्री की हैसियत से इनको काफी तारिफ मिले थे।


भट्टाराई के बारे में


यह नेपाल के एक दूरस्थ गांव से आते हैं। यहां इनका जन्म 1954 में हुआ था। पार्टी के अंदर इनको एक बेहद समझदार व उच्च कोटि के शिक्षित नेता के रूप में जाना जाता है। अपने शैक्षणिक अवधी के दौरान बाबूराम हमेशा टॉप करते रहे हैं। भट्टाराई ने नई दिल्ली के प्रतिष्ठित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से 1986 में पीएचडी की थी और उससे पहले चंडीगढ़ के पंजाब विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री ली थी।


भट्टाराई पर भारत समर्थक होने के आरोप लगते रहे हैं


काफी समय तक इन पर भारत समर्थक होने का आरोप लगता रहा है। इस तरह के आरोप पार्टी के अंदर से तो लगते ही रहे हैं, साथ ही पार्टी प्रमुख प्रचंड की ओर से भी निशाना साधा जाता रहा है। धीरे-धीरे भट्टाराई अपने ऊपर लग रहे आरोपों को शांत करने में कामयाब रहे हैं।


भट्टाराई का राजनीतिक जीवन व संघर्ष


भारत में अपने अध्ययन के दौरान भट्टाराई ने नेपाली छात्रों को एक छत्री के नीचे लाने की कोशिश की और यहीं से इनके राजनीतिक जीवन की शुरूआत मानी जाती है। जब नेपाल में राजशाही का अंत हुआ, तो प्रचंड के नेतृत्त्व में सरकार बनी और भट्टाराई को वित्त मंत्रालय का जिम्मा सौंपा गया। वित्त मंत्री के रूप में इनके नेतृत्व क्षमता की सभी ने सराहना की।


इसके बाद नेपाल में राजनीतिक उथल-पुथल का दौर आरंभ होता है और आने वाली हर सरकारें थोड़े समय बाद गिरती रहती हैं, लेकिन इस राजनीतिक अस्थिरता के बवंडर में भट्टाराई की लोकप्रियता बढ़ते जाती है। इस बात पर मुहर स्थानीय मीडिया द्वारा कराये गये सर्वे से भी लगता है। मीडिया द्वारा कराये गये सर्वे में भट्टाराई को नेपाल के प्रधानमंत्री के रूप में सबसे अधिक पसंद किया गया।


बहरहाल, नेपाली जनता की यह उम्मीद तो पूरी हो गई है, लेकिन अब भट्टाराई के सामने लोगों की उम्मीदों और आकांक्षाओं पर खरा उतरने की कठीन चुनौती है, खासकर नेपाल के उथल-पुथल भरे राजनीतिक माहौल में।


भट्टाराई के सामने है चुनौतियों का पहाड़


कद्दावर नेता प्रचंड के साथ अपने संबंधों को मधुर बनाये रखने की चुनौती तो होगी ही, साथ ही संविधान सभा के विस्तार के लिए अन्य राजनीतिक दलों को एक प्लेट फॉर्म पर लाना और उनके बीच सहमति बनाना भी अपने आप में बेहद कठीन होगा।


उधर, नेपाली संसद की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी “नेपाली कांग्रेस” और तीसरी सबसे बड़ी पार्टी “कम्युनिस्ट पार्टी-एमाले” ने विपक्ष में बैठने का फैसला करके भट्टाराई की राह में कांटों की संख्या और बढ़ा दी है। अब, जब तक ये दोनों पार्टियां सहमति नहीं देतीं, तब तक संविधान सभा के विस्तार के लिए जरूरी दो-तिहाई बहुमत को प्रप्त नहीं किया जा सकता।


भट्टाराई ने छोटी-छोटी मधेसी पार्टियों के सहारे बहुमत जरूर हासिल किया है, लेकिन अब व्यापक समर्थन को हासिल करने की आवश्यकता होगी, तभी जाकर नव नियुक्त प्रधानमंत्री जरूरी प्राथमिकताओं पर कार्य कर सकेंगे। कुछ चुनौतिपूर्ण प्राथमिकताओं में माओवादी लड़ाकुओं को नागरिक समाज में वापसी कराने के लिए नये संविधान का लिखा जाना भी है। फिलहाल, लगभग 19 हजार से अधिक माओवादी लड़ाके नेपाल के कई छावनियों में रह रहे हैं। अगर इनका समायोजन नहीं किया गया, तो कभी भी नेपाल में अराजकता की वापसी हो सकती है।


भट्टाराई को उनकी पार्टी के अंदर से भी कड़ी चुनौती मिल सकती है। यह चुनौती शक्तिशाली कट्टरपंथियों और पार्टी प्रमुख प्रचंड की ओर से आ सकती है। गौरतलब है कि नौ महीने पहले ही भट्टाराई अपनी ही पार्टी में अछूत हो गये थे, क्योंकि तब प्रचंड ने माओवादियों के जनविद्रोह का समर्थन किया था और भट्टाराई इससे सहमत नहीं थे।


[एन.के.भारद्वाज]

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