पटना ।। पटना की गलियों में एक ठेला गाड़ी पर अपनी पत्नी को बिठाकर रामा प्रतिदन सुबह अपने जीविकोपार्जन के लिए निकल जाता है। उसके जीविकोपार्जन का मुख्यधंधा लोगों के घरों में जाकर भीख मांगना और अपना व अपने परिवार का पेट भरना है। इसे लोग भीख तो अवश्य दे देते हैं, परंतु लोग इसका स्पर्श होने से बचते हैं क्योंकि यह कुष्ठ रोग से पीड़ित है।

ऐसा नहीं कि रामा अकेला ऐसा कुष्ठ रोगी है, जिसकी ऐसी स्थिति है। पटना की गलियों में ऐसे कुष्ठ रोगी आमतौर पर मिल जाते हैं। देश में अब भी कई ऐसे लोग हैं जो कुष्ठ रोग को छुआछूत की बीमारी मानते हैं और इसे लाइलाज मानते हैं। इसका एक बहुत बड़ा कारण लोगों में जागरूकता की कमी है।

राज्य में कुल 63 कुष्ठ कालोनियां हैं, जहां कुष्ठ पीड़ित लोग अपना जीवन गुजार रहे हैं। इनकी स्थिति कितनी बदतर है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ये अपने ही परिवार और समाज से बहिष्कृत होते हैं।

जानकार कहते हैं कि ऐसे लोग घर से बहिष्कार के बाद भटकते रहते हैं और गांव या शहर के बाहर झोपड़ी लगाकर रहने लगते हैं। धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती जाती है और फिर कोलोनी बन जाती है। इन कालोनियों में सुविधाओं की भारी कमी है।

रामा पहले तो आईएएनएस को कुछ भी बताने को राजी नहीं हुआ लेकिन बाद में उसने कहा है, “आज हम जैसे लोगों को जीना ही दुखदायी है। हम घर और समाज से बहिष्कृत हैं। सरकार हम लोगों की कालोनियों पर ध्यान नहीं देती क्योंकि हम वोट देने लायक भी नहीं हैं।”

वह कहते हैं कि हमारी कालोनी के अधिकांश लोग भीख मांगकर जीवन काट रहे हैं। उन्होंने समाज पर निशाना साधते हुए कहा कि आम दिनों में भीख भी कम मिलती है परंतु अपने लाभ और गरीबों को दान देने के लिए पंडितों द्वारा आमतौर पर बताए गए शनिवार को उन्हें ज्यादा पैसे मिलते हैं। उसने बताया कि वे मंदिरों के सामने बैठकर भी भीख मांगते हैं। उसने बताया कि उसकी कालोनी में रहने वाले कई ऐसे परिवार है जिनके बच्चे स्वस्थ हैं।

आंकड़ों के मुताबिक पटना में चार ऐसी कालोनियां हैं जहां कुष्ठ रोगी रहते हैं। इसके अलावा पूर्वी चम्पारण में 14, पश्चिम चम्पारण में आठ और सीतामढ़ी में भी पांच कालोनियां कुष्ठ रोगियों की बस गई हैं।

बिहार कुष्ठ कल्याण महासंघ के प्रदेश अध्यक्ष कमलेश प्रियदर्शी कहते हैं कि कुष्ठ रोग को लेकर लोगों में उत्पन्न भ्रांतियों के कारण इन कुष्ठ रोगियों को परेशानी होती है। परम्परागत ढंग से धार्मिक ग्रंथों और किंवदंतियों के कारण वर्षों से लोगों के बीच संचरित भ्रातियां के अनुसार इसे पूर्व जन्म का फल बताया जाता है। लोग इन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं। उन्होंने कहा कि इनकी कालोनियां अवैध रूप से बसी होती हैं जिस कारण वहां सुविधाएं भी नहीं मिल पातीं।

पूरी तरह बहिष्कृत इन कालोनियों में कोई शादी-ब्याह करना नहीं चाहता, भले ही वहां कई लोगों को कुष्ठ रोग नहीं है। इन कॉलोनियों में कोई जाति, धर्म नहीं है। यहां सभी की एक जाति ‘कुष्ठ’ है।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले वर्ष जारी किए गए सर्वेक्षण के अनुसार बिहार में 12,246 पंजीकृत कुष्ठ रोगी हैं, जो देश के किसी भी राज्य के मामले में सबसे अधिक है।

कुष्ठ (लेप्रोसी) मिशन के मुख्य मीडिया सलाहकार मनोज वर्गीज बिहार जैसे राज्य में इस रोग के उन्मूलन में सफलता नहीं मिलने का मुख्य कारण उदासीनता को मानते हैं। वह कहते हैं कि आमतौर पर इस बीमारी के शिकार गरीब परिवारों के लोग होते हैं, जिनमें जागरूकता की कमी होती है और ऐसे में प्रारम्भ से ही सरकारी स्तर पर इसके उन्मूलन पर ध्यान नहीं दिया जाता।

इधर, कुष्ठ मिशन के एक अन्य अधिकारी दावा करते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में कुष्ठ उन्मूलन को लेकर काफी काम हुए हैं। वह कहते हैं कि राज्य के सभी जिलों में कुष्ठ रोगियों को मुफ्त दवाएं दी जाती हैं। उन्होंने बताया कि 2001 से कुष्ठ सेवा सामान्य स्वास्थ्य सेवाओं में समायोजित कर दी गई है जिसके कारण इस रोग का इलाज सभी स्वास्थ्य केंद्रों पर उपलब्ध है। राज्य में पांच स्थानों पर कुष्ठ अस्पताल हैं जो गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा चलाए जाते हैं।

एक गैर सरकारी सामाजिक संस्था के लोगों का मानना है कि इस रोग का इलाज अब पूरी तरह सम्भव है। ऐसे में केवल जरूरी यह है कि इस बीमारी को लेकर जागरूकता फैलाई जाए ताकि इस बीमारी की समय से पहचान हो सके और उसका सही उपचार की जा सके।

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