नई दिल्ली ।। शांति की खोज मनुष्य का अंतिम लक्ष्य होता है, लेकिन अफसोस कि यह लक्ष्य दिन पर दिन दूर होता जा रहा है। मकड़ी के जाले की तरह, हम शांति के जितने ताने बुनते हैं, अशांति के उतने ही गहरे जाले में फंसते जाते हैं।

हम अपनी हर गतिविधि में शांति की तलाश करते हैं, लेकिन यह तलाश कभी पूरी नहीं हो पाती। हम शांति के बगैर ही शांत हो जाते हैं। आत्मा फिर भी शांति के लिए भटकती रहती है, और उस आत्मा की शांति का बोझ अगली पीढ़ी पर आ जाता है।

विज्ञान से लेकर मनोविज्ञान तक, धर्म से लेकर अध्यात्म तक, सभी विषयों का केंद्रीय तत्व शांति की प्राप्ति ही है। हम हर वस्तु, हर काम, हर कदम, हर दृष्टि में शांति ढूढ़ते हैं। शांति की प्यास इतनी बलवती है कि इसके लिए हम युद्ध भी करने में नहीं हिचकते। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या युद्ध से शांति सम्भव है! युद्ध से दुनिया शांत तो हो सकती है, लेकिन दुनिया में शांति स्थापित नहीं हो सकती। युद्ध के बाद हम शांति समझौते जरूर करते हैं। लेकिन समझौते का जो अर्थ होता है, वह अशांति के अनर्थ की ओर ही जाता है।

दुनिया में अब तक हुए शांति समझौतों को गिना जाए तो सैकड़ा का अंक तो पार कर ही जाएगा, लेकिन शांति का हिसाब लगाएंगे तो सैकड़ा और दहाई का यह अंक शून्य हो जाता है। यानी शांति हासिल करने के हमारे अब तक के सभी औजार भोथरे साबित हुए हैं। लेकिन संत कवि कबीर दास ने कहा कि ‘जिन ढूढ़ा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ, हम बपुरा डूबन डरा रहा किनारे बैठ’।

यानी सम्भावनाएं हमेशा बनी हुई हैं। शायद कमी हमारे गहरे डूबने में हो रही है। और हमें इस कमी को दूर करना है। क्योंकि मानव अस्तित्व को धरती पर बचाए और बनाए रखने का इसके अलावा और कोई दूसरा रास्ता भी नहीं बचा है। हम सारे रास्ते आजमा चुके हैं। पेट्रोल के लिए चाहे जितने भी युद्ध कर लें, लेकिन यह तय हो चुका है कि दुनिया की गाड़ी शांति के ईंधन के बगैर नहीं चलने वाली है।

हर युग में शांति के लिए अनगिनत युद्ध लड़े गए हैं। रामायण और महाभारत तो ऐसे शांति युद्धों के जीवंत दस्तावेज हैं। लेकिन इन युद्धों का परिणाम क्या रहा है? आज भी ‘शांति के लिए क्रांति’ जैसे चुटीले नारे बंद नहीं हुए हैं। लेकिन दुनिया में अब तक हुईं क्रांतियों की शांति क्या फल रही है? हमें इन सब पर विचार करना होगा।

शांति के महत्व और उसकी आवश्यकता को हर युग में समझा और स्वीकारा गया है। द्वितीय विश्व युद्ध में हुई तबाही और रक्तपात के बाद आज की दुनिया ने भी शांति के महत्व को शिद्दत से समझा और महसूस किया। लेकिन हमारी यह समझ कुत्ते की पूंछ जैसे स्वभाव की क्यों हो जाती है, हमें इस पर भी विचार करना होगा। हम बार-बार गलतियां आखिर क्यों करते हैं?

शांति के महत्व को स्वीकार करते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 1981 में एक प्रस्ताव पारित किया, हर वर्ष सितम्बर के तीसरे मंगलवार को यानी संयुक्त राष्ट्र महासभा के नियमित सत्र के प्रारम्भ दिवस को अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस मनाने का प्रस्ताव। प्रस्ताव को ब्रिटेन और कोस्टारिका ने पेश किया था। पहली बार 1982 में अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस मनाया गया। दुनिया के कई देशों ने इसमें हिस्सा लिया।

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2002 में सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित कर 21 सितम्बर को अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस के रूप में घोषित कर दिया। तभी से अब हर वर्ष 21 सितम्बर को अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस मनाया जाता है। तरह-तरह के आयोजन होते हैं, शांति के प्रतीक श्वेत पंख वाले कबूतर उड़ाए जाते हैं। लेकिन शांति का यह समारोही दिवस हमें शांति कितनी दे पाता है?

क्षमा कीजिए! शांति कोई भौतिक वस्तु नहीं है। यदि ऐसा होता तो कम से कम दुनिया के करोड़पतियों की अट्टालिकाओं के किसी कोने में शांति भी ठिठकी पड़ी रहती, लेकिन आज तो गद्दाफी के महल में सबसे अधिक अशांति है। शांति पाने के लिए करोड़पति नहीं कबीर बनना होगा। कबीर को बार-बार याद करना होगा।

कबीर दास ने कहा है : ‘माया दीपक नर पतंग भ्रमि-भ्रमि इवै पड़त, कह कबीर जे ज्ञान ते एक-आध उबरंत’। यानी शांति को पाने का असली औजार ज्ञान है और संतोष, शांति की पूर्व अवस्था है।

[सरोज कुमार]

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