बांद ।। उत्तर प्रदेश के बुंदेलखण्ड में कभी जड़ी-बूटियों की भरमार हुआ करती थी लेकिन अब यह गुजरे जमाने की बात हो गई है। संरक्षण व रखरखाव के अभाव में दुर्लभ प्रजाति की हजारों जीवनदायिनी जड़ी-बूटियां विलुप्त होने के कगार पर हैं।

राज्य के बुंदेलखण्ड क्षेत्र में तीन दशक पहले देसी दवाओं का चलन था। ग्रामीण वैद्य-हकीमों के उपचार में भरोसा किया करते थे। एक ओर जहां एलोपैथी व होम्योपैथी के उपचार को बढ़ावा मिलने से आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को ग्रहण लग गया है, वहीं संरक्षण व रखरखाव के अभाव ने दुर्लभ प्रजाति की हजारों जीवनदायिनी जड़ी-बूटियों को विलुप्त होने के कागार पर पहुंचा दिया है।

पहले गांव के जंगलों में हंसराज, कामराज, हड़जोड़, वच, आवां हल्दी, चंसुर, चित्रक, कलिहारी, पुनर्नवा, अश्वगंधा, गुरिज, चकवाड़, लाजवंती, गुखरू, मदार, दूधिया, अडूसा, तिमरू, ममीरी, चवन्नी घास, वराही, भटकटैया, सुखमांदा, ग्वांरपट्ठा जैसी हजारों जड़ी-बूटियां आसानी से मिल जाया करती थीं लेकिन अब आयुर्वेद चिकित्सा (धनवन्तरि) में भरोसा करने वाले लोग यही सब दुकान से महंगे दामों में खरीद कर असाध्य रोगों का उपचार कर रहे हैं।

बांदा जनपद में अतर्रा कस्बे के आयुर्वेद चिकित्सक डॉ़ महेंद्र सिंह ने बताया, “पुनर्नवा व अश्वगंधा का प्रयोग च्यवनप्राश बनाने में किया जाता है। वच की जड़ से गुर्दे की बीमारी ठीक होती है। हंसराज जहरीले जंतुओं के विष पर काबू पाता है और कामराज से मुंह के छाले व डायरिया तथा चित्रक से क्षयरोग जैसी घातक बीमारी दूर होती है।”

उन्होंने बताया कि दूधिया कमरदर्द, चकवड़ से फोड़ा-फुंसी, खांसी, दमा और प्रसूति की बीमारी के लिए अडूसा रामबाण दवा है। कुष्ठ रोग दूर करने में सहायक ममीरी व चवन्नी घास और रक्त शोधन में वराही का इस्तेमाल किया जाता है, जिनको तलाशने में भारी मशक्कत करनी पड़ती है।

बुंदेलखण्ड में कई आयुर्वेदिक कालेज व चिकित्सालय तो हैं, पर शोध संस्थान नहीं हैं। यही वजह है कि ये जड़ी-बूटियां सहेजी नहीं जा सकीं। चित्रकूट में दीनदयाल शोध संस्थान द्वारा संचालित आरोग्यधाम के निदेशकडॉ़ अनिल जायसवाल का कहना है कि ‘कुछ साल तक पाठा के जंगलों में काफी तादाद में जड़ी-बूटियां उपलब्ध थीं लेकिन अब नष्ट हो गई हैं।

Rate this post

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here