रांची ।। झारखण्ड की राजधानी रांची में स्थित झारखण्ड सशस्त्र पुलिस (जेएपी) मैदान पर दुर्गा पूजा कुछ अलग अंदाज में मनाया जाता है। इस स्थान पर मां दुर्गा की प्रतिमा की नहीं बल्कि हथियारों और गोला-बारूद की पूजा की जाती है।

पूजा के दौरान मंच पर हथियारों से सजाई गई प्रतिमा को बंदूकों की सलामी दी जाती है, जानवरों की बलि दी जाती है और महिलाएं अपने पति और बच्चों की खैरियत के लिए प्रार्थना करती हैं।

एके47, इंसास राइफल, पिस्टल, मोर्टार, कारबाइन और ग्रेनेड जैसे हथियार मंच पर रखे जाते हैं। इन्हें फूलों से सजाया जाता है और फिर इनकी पूजा की जाती है।

जेएपी राज्य के सबसे सक्षम पुलिस बलों में से एक है। जेएपी कमांडो अनेक नक्सल विरोधी कार्रवाइयों में शामिल रहे हैं। साथ ही साथ इनका काम अति विशिष्ट लोगों को सुरक्षा प्रदान करना भी होता है।

जेएपी के अधिकत्तर जवान गोरखा समुदाय के सम्बंध रखते हैं, जो दुर्गा पूजा को बड़े धूमधाम से मनाता है। एक गोरखा महिला अनीता मेहता ने आईएएनएस को बताया, “हम मां दुर्गा की पूजा अपने पति और बच्चों की सुरक्षा के लिए करते हैं। गोरखा समुदाय के अधिकांश लोग जेएपी में काम करते हैं। इन्हें अनेक संकटों से गुजरना पड़ता है। ऐसे में इनकी सुरक्षा को हमेशा खतरा रहता है।”

दुर्गा पूजा महोत्सव के नौवें दिन जेएपी मैदान पर जानवरों की बलि दी जाती है। इस दौरान गोरखा जवान अपने हथियारों के साथ मां दुर्गा का आशीष प्राप्त करते हैं।

जेएपी के जवान राजेश थापा ने कहा, “हमारे हथियार ही हमारे लिए सब कुछ हैं। हमें इन्हीं की बदौलत नक्सलियों और अपराधियों से भिड़ना होता है। हमारे हथियार अच्छे से काम करेंगे तभी हम दुश्मनों से लड़ सकेंगे।”

स्थानीय लोग मानते हैं कि उनके समाज में दुर्गा की मूर्ति की पूजा का चलन नहीं है क्योंकि इसे शुभ नहीं माना जाता।

इस स्थान पर 1880 में बिहार मिलिट्री पुलिस (बीएमपी) की देखरेख में दुर्गा पूजा उत्सव शुरू हुआ था। उस समय बिहार का विभाजन नहीं हुआ था। झारखण्ड की स्थापना के बाद बीएमपी का नाम बदलकर जेएपी हो गया। इसके बाद भी इस स्थान पर हथियारों की पूजा का चलन जारी रहा।

स्थानीय लोगों का कहना है कि 1953 में बीएमपी के एक उच्चाधिकारी ने यहां मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की थी। इसके बाद उस अधिकारी और गोरखा समुदाय को अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ा।

कमांडेंट बीमार पड़ गया और कुछ लोग प्राकृतिक आपदाओं में मारे गए। 1953 की उस घटना के बाद गोरखा समुदाय ने इस स्थान पर हथियारों की पूजा करने का चलन जारी रखा, जो आज भी बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।

 

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