
बांदा ।। ‘दीपक तले अंधेरा’ का मुहावरा मिट्टी का दीपक बनाने वाली कुम्हार कौम के लिए सटीक बैठ रहा है। प्रकाश पर्व दीपावली में मिट्टी की ‘दूलिया’ (दीपक) देकर हर घर में उजाला करने वाले कुम्हार महंगाई और आर्थिक तंगी से मुफलिसी का जीवन गुजार रहे हैं। इनके घरों में अब तक ‘लक्ष्मी-गणेश’ की मेहरबानी नहीं हुई है।
दीपावली पूरे देश में हर्षोल्लास से मनाने की सदियों पुरानी परम्परा है। इस पर्व में लोग ‘लक्ष्मी-गणेश’ की विधि-विधान से पूजा-अर्चना करते हैं। माना जाता है कि इनकी पूजा से घर में लक्ष्मी यानी धन की आवक होती है। लेकिन दीपावली के इस त्योहार में अहम भूमिका निभाने वाली अति पिछड़ा वर्ग की कुम्हार बिरादरी को दो वक्त की रोटी के लाले पड़े हैं।
आमतौर पर गांवों में बसी यह कौम मिट्टी के बर्तन घड़ा, मटका, डहरी, गुदुरुआ (सुराही), दूलिया (मिट्टी का दीपक) व परई बनाकर अपने परिवार का पालन-पोषण किया करते थे। भूमिहीन की श्रेणी में आने वाली इस कौम के पास खेती-बारी के लिए कृषिभूमि न तब थी और न अब है।
इस कौम के कल्याण के लिए राज्य सरकार ने इतना जरूर किया कि हर गांव में चकबंदी के दौरान दो-चार विस्वा भूमि ‘कुम्हारी कला’ के नाम पर सुरक्षित कर दी, ताकि बर्तन बनाने की मिट्टी के लिए इस कौम को भटकना न पड़े। मगर, ईंधन (लकड़ी-कंडे) का प्रबंध करना भूल गई।
पहले गांवों में यह कौम अपनी सुविधानुसार किसानों का बंटवारा कर लेते थे। हर तिथि-त्योहार में घर-घर मिट्टी के बर्तन देने का रिवाज था। दीपावली पर्व में इस कौम के लोग ‘दूलिया-परई’ हर किसान के घर भेंट किया करते थे, जिसके एवज में उन्हें बतौर मेहताना कुछ अनाज दिया जाता था। मिट्टी का अभाव और ईंधन की कमी से कुम्हारों के ‘चाक’ (मिट्टी के बर्तन बनाने का उपकरण) थम गए हैं। इन्हें न तो लक्ष्मी जी की मेहरबानी मिली और न ही राज्य सरकार की कृपा नसीब हुई।
मुफलिसी की जिंदगी गुजार रही इस कौम की युवा पीढ़ी परदेस कमाने जाने लगे हैं। हालात ये हुए कि अब ग्रामीण दीपावली मनाने के लिए एक अदद दूलिया को तरस रहे हैं। शहर व कस्बों के लोग तो बिजली के झालरों से घरों को रोशन कर लेंगे, पर उन गांवों की दीपावली कैसी होगी जहां अब तक बिजली नहीं पहुंची है।
बांदा जनपद के तेंदुरा गांव का युवा रिजइया बताता है कि ‘उसका बाबा रामधनी मिट्टी के बर्तन बनाने का काम किया करते थे। अब इन बर्तनों के निर्माण के जरिए बसर की गुंजाइश नहीं है। गांव में कृषिभूमि भी नहीं है कि खेती की जा सके। इसलिए दिल्ली, गुजरात या अन्य महानगरों में मजदूरी कर दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर रहे हैं’।
अतर्रा के उपजिलाधिकारी आर.के. श्रीवास्तव का कहना है, “हर गांव में कुम्हारी कला के लिए सुरक्षित भूमि में कुम्हार बिरादरी के लोगों को मिट्टी खोदने का पट्टा किया जा चुका है। अलग से कोई योजना नहीं है जिससे इस कौम का भला हो सके।”