सिलिगुड़ी, Hindi7.com ।। गोरखालैंड की समस्या को दूर करने के उद्देश्य से केंद्र सरकार ने गोरखालैंड प्रादेशिक प्रशासन के गठन को मंजूरी दे दी है। इसके लिए जरूरी समझौते पर केंद्र सरकार, गोरखा जनमु‍क्ति मोर्चा और पश्चिम बंगाल सरकार के बीच त्रिपक्षीय समझौते पर आज हस्‍ताक्षर किए गए।

इस समझौते के लिए गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने पहले ही सहमति दे दी थी। इसी संदर्भ में बंगाल की मुख्‍यमंत्री ममता बनर्जी गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के मुखिया बिमिल गुरंग से मुलाकात की थीं। इस ऐतिहासिक समझौते दौरान राज्य के मुख्य सचिव और अन्य अधिकारी राज्य का प्रतिनिधित्व करने के लिये मौजूद थे।

लेफ्ट ने इस ऐतिहासिक समझौते से स्वयं को अलग रखा है। लेफ्ट के मुताबिक, इस समझौते से राज्‍य में हिंसा बढ़ेगी और साथ ही अलग गोरखालैंड की मांग को बल मिलेगा।

हो रहा समझौते का विरोध

लेफ्ट ने इस समझौते के विरोध में उत्‍तरी बंगाल में बंद रखने का एलान किया, जिसके तहत आज दुकाने बंद रहीं और सड़कें भी सुनसान रहीं। राज्‍य के कई इलाकों में इस बंद का बुरा असर बी देखने को मिला।

लेफ्ट नेता प्रकाश करात ने कहा कि “राज्‍य और केंद्र सरकार ने इस समझौते पर हस्‍ताक्षर करके बहुत बड़ी भूल की है। अब अलग गोरखालैंड की मांग को नई ताकत मिलेगी।”

उधर, आमरा बंगाली, जन जागरण, जन चेतना जैसे संगठनों ने भी बंद का आयोजन किया है। इनका प्रभाव राज्य के मैदानी इलाकों में है। इनका कहना है कि इस समझौते से नई सामस्याओं का जन्म होगा।

गोरखालैंड नाम पर विवाद

प्रस्तावित पर्वतीय प्राधिकरण का नाम गोरखालैंड रखा गया है, जिसका कई समूह विरोध कर रहे हैं। इस मसले पर ममता का कहना है कि “केवल नाम बदलने से कोई फर्क नहीं पड़ता। लोगों को इस तरह की राजनीति से दूर रहना चाहिए।”

इस नये समझौते के तहत गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन की स्थापना की जाएगी, जो दो दशक पुरानी गोरखा हिल कांउसिल की जगह लेगी। गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन के पास हिल कांउसिल की तुलना में अधिक अधिकार भी होंगे।

इस समझौते के बाद पैदा होनेवाली संभावित समस्याएं

कम्युनिस्ट नेता अशोक भट्टाचार्य के मुताबिक, “जिस तरह से दार्जिलिंग के अलावा तराई और दोआर्स के इलाकों के कुछ हिस्सों को भी गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन में मिलाने की बात हो रही है, उससे नई दिक्कतें पैदा हो सकती है।” इस नए समझौते के तहत एक समिति बनाई जाएगी, जिसे इन क्षेत्रों को प्रशासन में मिलाए जाने पर अपनी राय देने को कहा जाएगा।

अशोक भट्टाचार्य कहते हैं कि “तराई और दोआर्स के इलाकों को गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन में लाए जाने से इन इलाकों में रहने वाले आदिवासियों, बंगालियों, बोडो और राजवंशी समाज के लोगों को निराशा होगी। संभव है, अपने-आप में नई समस्याओं का जन्म हो।”

राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में पकड़ रखने वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ रेवोल्यूशनरी मार्कसिस्ट के नेता आरबी राय का कहना है कि “नये समझौते से नेपाली भाषी लोगों को कोई पहचान नहीं मिलेगी।”

आरबी राय कहते हैं कि “नेपाल की सीमा के पास रहने के कारण लोग हमें वहां का मानते हैं, जबकि हमारे पूरखे भी यहीं के मूल निवासी थे। हम भारत की फौज में हैं, लगभग हर सूबे में मौजूद हैं, लेकिन हमारे ऊपर विदेशी होने का ठप्पा इसीलिए लगता है, क्योंकि हमारा देश में अलग राज्य नहीं है।” इस समझौते से हमारी समस्या का अंत नहीं होगा।

अनदेखी का आरोप

गोरखालैंड की स्थापना के लिए लंबे समय से आंदोलन कर रहे अखिल भारतीय गोरखा लीग और सुभाष घीसिंग वाली गोरखा लिबरेशन फ्रंट जैसी संस्थाएं नाराज हैं। इनका कहना है कि केंद्र और राज्य सरकार ने सिर्फ गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को ही समझौते का हिस्सा बनाया है, जबकि हम भी वर्षों से लड़ाई लड़ते आ रहे हैं।

गौरतलब है कि गोरखा लीग भारत की आजादी के बाद से ही गोरखा मूल के लोगों के अधिकारों के लिए सवाल उठाता रहा है। सुभाष घीसिंग के 1980 के दशक में चलाए गए हिंसक आंदोलन के बाद 1988 में अर्ध-स्वायतशासी दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल का गठन किया गया था। बहरहाल, घीसिंग का आंदोलन विघटनकारी हो चला था।

गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को मिल रहा तव्वजो

गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का निर्माण 2008 में हुआ, लेकिन अपने निर्माण से ही यह संगठन भारतीय संप्रभुता के तहत अलग राज्य की मांग करता रहा है, जिसके कारण इसे अन्य संगठनों की तुलना में अधिक समर्थन प्राप्त होता रहा है।

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