डरबन ।। धनी और गरीब देश क्योटो प्रोटोकाल की समय सीमा बढ़ाने को लेकर किसी सहमति पर नहीं पहुंच पाए हैं। जबकि इसकी समय सीमा अगले वर्ष समाप्त हो जाएगी। यह स्थिति तब है, जब डरबन में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन वार्ता सोमवार को दूसरे सप्ताह में प्रवेश कर गई।
खास बात यह है कि गरम घरेलू गैसों के उत्सर्जन पर नियंत्रण के लिए कानूनी रूप से बाध्यकारी यही एक मात्र व्यवस्था उपलब्ध है।
अफ्रीकी संघ ने सोमवार को जलवायु परिवर्तन पर एक नई वैश्विक संधि के यूरोपीय संघ (ईयू) के प्रस्ताव को ‘कानूनी प्रतिबद्धता’ के बदले ‘एक राजनीतिक प्रतिबद्धता’ बताया और कहा कि धनी देशों को पहले मौजूदा व्यवस्था का सम्मान करना चाहिए।
जहां ईयू ने कहा कि यदि प्रोटोकाल से बाहर के विकसित देश और उभर रही अर्थव्यवस्थाएं अपने उत्सर्जन में कमी लाती हैं, तो वह क्योटो प्रोटोकाल की एक दूसरी प्रतिबद्धता अवधि के लिए तैयार है, जोकि 2012 में समाप्त हो रही है।
दूसरी ओर भारत क्योटो प्रोटोकाल की मियाद बढ़ाए जाने के पक्ष में है, लेकिन वह किसी नए वैश्विक संधि के पक्ष में नहीं है। चीन ने कुछ नरमी दिखाई है और कहा है कि वह 2020 के बाद कानूनी रूप से बाध्यकारी उत्सर्जन में कटौती को स्वीकार कर सकता है।
डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो के तोसी मपानू ने कहा, “विकसित देशों को जिम्मेदाराना तरीके से काम करना चाहिए और मौजूदा व्यवस्था का सम्मान करना चाहिए। यदि वे अपने वादे को पूरा नहीं कर सकते, तो उनपर उंगली उठाई जाए और भरोसा न किया जाए।”
रूस, जापान, और कनाडा जैसे देशों ने कहा है कि वे क्योटो प्रोटोकाल की मियाद बढ़ाने के लिए कोई भी वादा नहीं करना चाहते।
मपानू ने विकसित देशों से अपील की है कि उन्हें पृथ्वी को बचाने के लिए जलवायु नेतृत्व प्रदर्शित करनी चाहिए। उन्होंने कहा, “उन्होंने आर्थिक नेतृत्व, राजनीतक नेतृत्व और यहां तक कि सैन्य नेतृत्व भी प्रदर्शित की है, और उनके लिए यह जलवायु नेतृत्व प्रदर्शित करने का समय आ गया है।”