वाशिंगटन ।। नेशनल सेंटर फॉर एटमॉसफेरिक रिसर्च [एनसीएआर] के शोध के मुताबिक अगर कोयले के बजाय प्राकृतिक गैसों का अधिकाधिक प्रयोग होने लगे तो भी जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया धीमी नहीं हो सकती।

प्राकृतिक गैसों से कार्बन डाईआक्साइड का उत्सर्जन कोयला की अपेक्षा बहुत कम होता है।

एनसीएआर के वरिष्ठ रिसर्च एसोसिएट टॉम वाइग्ले शोध के आधार पर इस बात को रेखांकित करते हैं कि कैसे जीवाश्म ईंधनों के जटिल और कभी-कभी परस्पर विरोधी तरीके से जलने पर जलवायु प्रभावित होती है।

जर्नल ‘क्लाइमेट चेंज लेटर्स’ के मुताबिक कोयले से उत्सर्जन होने वाले कार्बन डाईआक्साइड से तापमान में वृद्धि होती है लेकिन इसके साथ भारी मात्रा में सल्फेट का भी उत्सर्जन होता है जो सूर्य की किरणों को रोककर धरती को ठंडा भी रखता है।

एनसीएआर के बयान के अनुसार स्थिति तब और जटिल हो जाती है जब प्राकृतिक गैसों के जलाने पर उससे निकलने वाली गैस मीथेन की मात्रा का पता नहीं चलता है। मीथेन खास तौर पर एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है।

वाइग्ले ने कम्प्युटर गणना से प्राप्त संकेतों के आधार पर कहा कि वैश्विक स्तर पर आंशिक रूप से अगर कोयला की जगह प्राकृतिक गैसों का प्रयोग होने लगे, भले ही उससे थोड़ी भी मीथेन गैस उत्सर्जित न हो तो भी वर्ष 2050 तक जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया में बहुत थोड़ा बदलाव आएगा।

प्राकृतिक गैसों पर अधिक निर्भरता से बढ़ती हुई विश्व की औसत तापमान की प्रक्रिया धीमी होगी लेकिन वह भी केवल एक डिग्री के कुछ 10वें भाग के बराबर होगी।

आस्ट्रेलिया में एडीलेड विश्वविद्यालय में वाइग्ले सहायक प्रोफेसर भी हैं। उनका कहना है, “प्राकृतिक गैसों पर अधिक निर्भरता से कार्बन डाईआक्साइड के उत्सर्जन में कटौती होगी लेकिन जलवायु की समस्या को हल करने में इसका योगदान बहुत कम होगा।”

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