काठमांडू ।। गत तीन वर्षो में नेपाल के चौथे प्रधानमंत्री बने बाबूराम भट्टराई राजनीतिक बुलंदियों पर पहुंचने के साथ ही शिक्षा के क्षेत्र में शानदार उपलब्धियां हासिल की हैं। वामपंथी राजनीति में शामिल होने से पहले वह अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुके हैं।
ज्ञात हो कि प्रधानमंत्री पद के लिए रविवार को हुए मतदान में माओवादी उम्मीदवार बाबूराम भट्टराई चुनाव जीत गए। भट्टराई(57) नेपाल के 35वें प्रधानमंत्री होंगे।
पश्चिमी नेपाल के गोरखा जिले से आने वाले भट्टराई कभी नेपाल के शाही परिवार के भी नजदीक रहे। इन्होंने वर्ष 1970 में अमर ज्योति जनता सेकेंड्री स्कूल से 10वीं की बोर्ड परीक्षा में सर्वोच्च अंक हासिल किया और काठमांडू के अमृत साइंस कैम्पस से विज्ञान के छात्र के रूप में इन्होंने 12वीं की पढ़ाई की। भट्टराई ने 12वीं की बोर्ड परीक्षा भी टॉप की।
शिक्षा के क्षेत्र में शानदार उपलब्धि हासिल करने पर इन्हें कोलम्बो प्लान के तहत वजीफा मिला जिसने उनके भारत के साथ शैक्षणिक रिश्तों को प्रगाढ़ किया। भट्टराई ने चण्डीगढ़ कॉलेज आफ आर्किटेक्चर से स्थापत्य कला में स्नातक और इसके बाद इसी विषय में दिल्ली स्कूल आफ प्लानिंग एवं आर्किटेक्चर से परास्नातक किया।
ज्ञात हो कि दिल्ली स्कूल आफ प्लानिंग एवं आर्किटेक्चर में ही वह हिसिला यामी के सम्पर्क में आए जो बाद में उनकी पत्नी बनीं। भट्टराई की भारतीय लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरुं धति रॉय से भी यहीं पहचान हुई।
भट्टराई ने वर्ष 1986 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) से अपनी पीएचडी पूरी की। भट्टराई मानते हैं कि जेएनयू ने ही उन्हें पहली बार साम्यवाद का पाठ पढ़ाया।
भट्टराई के शोध का शीर्षक ‘अल्प विकास की प्रकृति एवं नेपाल की क्षेत्रीय संरचना-एक मार्क्सवादी विश्लेषण’ था। उनका यह शोध पुस्तक के रूप में उस समय प्रकाशित हुआ जब नेपाल में माओवादी भूमिगत थे और देश के खिलाफ लड़ाई छेड़ रखी थी।
माओवादियों द्वारा ‘पीपुल्स वार’ की शुरुआत करने पर वह वर्ष 1996 में भूमिगत हो गए। माओवादियों ने यह लड़ाई राजशाही की समाप्ति और देश का संविधान निर्वाचित सदस्यों द्वारा लिखने की मांग को लेकर शुरू की थी। इस संकट काल में भट्टराई भारतीय शहरों में छिपे और यहां के कम्युनिस्ट नेताओं के सम्पर्क में रहे।
वर्ष 2004-05 के दौरान भट्टराई के सम्बंध माओवादी प्रमुख पुष्प कमल दहल प्रचंड से अच्छे नहीं रहे जिसकी वजह से उन्हें और उनकी पत्नी को पार्टी से निलम्बित कर दिया गया। यही नहीं नेपाल के एक गांव में पति-पत्नी को नजरबंदी में रखा गया।
इस बीच, राजशाही की समाप्ति के समय माओवादी नेताओं और उनके बीच मतभेद कम हुए। माना जाता है कि भट्टराई और माओवादी नेताओं के बीच सुलह कराने में भारतीय नेताओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
वर्ष 2006 में नेपाल की प्रमुख राजनीतिक दलों के साथ समझौता करने के बाद माओवादियों ने जनता के साथ देश में 19 दिनों का प्रदर्शन किया। जनता के दबाव के चलते राजा ज्ञानेन्द्र को सत्ता से हटना पड़ा।
इसके दो वर्ष बाद हुए ऐतिहासिक आम चुनावों में माओवादी सबसे बड़े दल के रूप में उभरे और गोरखा से भट्टराई सर्वाधिक मतों से विजयी हुए। थोड़े समय तक सत्ता में रहने वाली प्रचंड की सरकार में भट्टराई वित्त मंत्री बने। उनके वित्त मंत्री रहते नेपाल के राजस्व में अप्रत्याशित वृद्धि हुई।
वर्ष 2009 में प्रचंड की सरकार गिरने के बाद दोनों में मतभेद एक बार फिर बढ़े जिसकी वजह से प्रचंड ने उनका नाम प्रधानमंत्री पद के लिए आगे नहीं किया।
इसके बाद बदले राजनीतिक घटनाक्रम के बीच प्रचंड ने प्रधानमंत्री पद के लिए भट्टराई को अपना उम्मीदवार बनाया।
उल्लेखनीय है कि माओवादी पार्टी में भट्टराई एक उदार चेहरे के रूप में देखे जाते हैं। वह भारत के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन शुरू करने की जगह शांति प्रक्रिया से मसलों का हल ढूढ़ने के पक्षपाती हैं।
प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्हें पार्टी के दिग्गज नेताओं को अपने साथ रखने और भारत और चीन के बीच एक बेहतर संतुलन कायम करना होगा।
भट्टराई के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती देश में सभी प्रमुख राजनीतिक दलों का सहयोग हासिल करने के साथ ही देश का नया संविधान तैयार कराना है। उनके सामने माओवादियों की गुरिल्ला सेना को शस्त्रविहीन करना भी एक बड़ी चुनौती है।