पटना ।। देश में पहली गैर कांग्रेसी केंद्र सरकार के सूत्रधार जयप्रकाश नारायण (जेपी) न केवल आधुनिक भारत के इतिहास में सम्पूर्ण क्रांति के उद्घोषक थे, बल्कि अपने कार्यो से वह ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ का प्रतीक बन गए थे। यही कारण है कि लोकनायक एवं युगद्रष्टा जैसी सामाजिक उपाधि हासिल करने वाले जेपी ने भारतीय चिंतकों और विचारकों के बीच महत्वपूर्ण स्थान बनाया था।
जयप्रकाश नारायण भारतीय समाजवाद के प्रथम पंक्ति के नेता था। भारत और भारतीय जनता उन्हें ‘भारत की दूसरी आजादी’ के जनक के रूप में देखती है। 11 अक्टूबर 1902 को बिहार के सिताब दियारा में जन्मे जयप्रकाश अपने विद्यार्थी जीवन में ही स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे। वह 1922 में अध्ययन के लिए विदेश गए और स्नातकोतर तक की शिक्षा ग्रहण की। अपनी मां की तबीयत ठीक नहीं होने के कारण वह स्वदेश लौट आए, जिस कारण वह पीएचडी पूरी नहीं कर सके।
इतिहासकारों के अनुसार वैसे तो समाजवाद का जन्म एवं विकास यूरोप में 19वीं शताब्दी में ही हो गया था परंतु भारत में इसका आगमन 20वीं शताब्दी में हुआ। इस विचारधारा से कई नेता प्रभावित हुए, जिनमें जेपी की गिनती उच्चकोटि के नेता में हुई।
जेपी पर समाजवाद के प्रभाव का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अक्टूबर 1920 में बिहार के प्रसिद्ध गांधीवादी और समाजवादी नेता बृज किशोर प्रसाद की पुत्री प्रभावती से उनका विवाह हुआ और उसके बाद गांधी आश्रम को ही उन्होंने अपना आशियाना बना लिया और यहीं से प्रारम्भ हुई उनकी सामाजिक यात्रा।
वर्ष 1932 में जब स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख नेता जेल चले गए तो देश के कई इलाकों में जेपी ने इस आंदोलन की कमान संभाली। बाद में उन्हें भी सितम्बर 1932 में गिरफ्तार कर लिया गया और नासिक जेल भेज दिया गया। वर्ष 1948 में उन्होंने ‘सोशलिस्ट पार्टी’ की स्थापना की।
बीच के समय में राजनीति से दूर रहे जेपी वर्ष 1960 के दशक में एक बार फिर राजनीति में सक्रिय हो गए। वह केंद्र की इंदिरा सरकार की नीतियों के विरोधी थे। गिरते स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने बिहार में भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यापक आंदोलन किया। वर्ष 1974 में जेपी ने जनता को जगाकर इंदिरा गांधी की संभावित तानाशाही के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार किया।
जेपी के जानने वाले एक समाजवादी नेता बताते हैं कि उस समय पटना में एक आमसभा को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा, “आज हमारे देश की केंद्रीय सत्ता के द्वारा जो माहौल बनाया जा रहा है, उससे तो यही लगता है कि भारत की जनता इंदिरा गांधी की गलत नीतियों के खिलाफ विद्रोह कर देगी और लोकतांत्रिक विकल्प के अभाव में सेना देश की सत्ता अपने हाथ में ले सकती है।”
उनके इस कथन को तब और बल मिल गया जब तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने 25 जून 1972 की रात पूरे देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। इसी तानाशाही के खिलाफ जेपी ने जो आंदोलन छेड़ा वह अभूतपूर्व था। इस आंदोलन के बाद केंद्र की सत्ता में हालांकि बदलाव आया, परंतु उनकी क्रांति अधूरी रह गई। 15 जून 1974 को गांधी मैदान में जेपी ने सम्पूर्ण क्रांति का उद्घोष किया।
जानकारों का कहना है कि इसके बाद भी जेपी का सपना पूरा नहीं हुआ। वे कहते हैं कि इस क्रांति का प्रभाव न केवल देश में, बल्कि दुनिया के तमाम छोटे देशों पर भी पड़ा था। जेपी के जानने वाले अखिलेश्वर प्रसाद कहते हैं कि वर्ष 1977 में हुआ चुनाव ऐसा था जिसमें नेता पीछे थे और जनता आगे थी। यह जेपी के करिश्माई नेतृत्व का ही असर था।
वे कहते हैं कि जेपी आंदोलन से कई नेता उभरे, परंतु आज भी उन्हें दुख है कि जेपी का सपना आज भी साकार नहीं हो पाया है। वे कहते हैं कि जेपी के नाम पर राजनीति तो होती है, लेकिन उनकी बताई राह से चलकर मंजिल तक पहुंचना किसी का उद्देश्य नहीं रहा।
जेपी का निधन पटना सिथत उनके निवास स्थान में 8 अक्टूबर 1979 को हृदय की बीमारी और मधुमेह के कारण हो गई। उनके सम्मान में तत्कालीन प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने सात दिन तक राजकीय शोक की घोषणा की थी।