नई दिल्ली ।। पत्रकारिता का दबाव और तनाव अच्छे-अच्छे पत्रकारों की क्षमता पर असर डाले बगैर नहीं रहता, पर इस दुनिया से असमय अलविदा हो गए वरिष्ठ पत्रकार रवींद्र कुमार कठिन से कठिन परिस्थतियों में बेहतर कार्य प्रदर्शन के लिए जाने जाते थे।

लीवर सिरॉसिस और हेपेटाइटिस बी की दोहरी घातक गिरफ्त में आने के बावजूद उन्होंने सक्रिय पत्रकारिता से तब तक नाता नहीं तोड़ा, जब शारीरिक असमर्थता चरम पर नहीं पहुंच गई। अपनी कॉलोनी वैशाली के पुष्पांजलि क्रॉसले अस्पताल में उन्होंने शुक्रवार को अंतिम सांस ली। वह 47 वर्ष के थे और अपने पीछे अपनी पत्नी और दो बेटियों को छोड़ गए हैं। 

करीब 20 सालों के पत्रकारिता-करियर में कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं एवं एक अग्रणी समाचार एजेंसी में काम करते हुए उन्होंने उच्च कार्य क्षमता वाले एक ऐसे पत्रकार की छवि बनाई थी जो हर परिस्थिति में बेहतर कार्य करने में समर्थ था। समन्वय, संपादन, र्पिोटिंग और अनुवाद सहित पत्रकारिता के सभी पक्षों पर उनकी समान पकड़ थी। 

टाइम्स रिसर्च फाउंडेशन (टीआरएफ) के लिए चुने जाने के बाद उन्होंने अपने करियर की शुरुआत नवभारत टाइम्स के जयपुर संस्करण से की। उस संस्करण के लिए उन्होंने कई यादगार रिपोर्टें लिखीं, वहीं विभिन्न पृष्ठों के लिए उनके द्वारा किए गए समन्वय कार्य को खूब सराहा गया।

इसके बाद उन्होंने दिल्ली की पत्रकारिता को आजमाने का फैसला किया और दिल्ली के लोकमत टाइम्स ब्यूरो से जुड़ गए। वर्ष 1997 से 2002 तक उन्होंने आईएएनएस की हिंदी सेवा का दायित्व संभाला। इसके बाद उन्होंने आउटलुक साप्ताहिक हिंदी में समन्वय संपादक का दायित्व संभाला और इस पद पर रहते हुए उन्होंने इस पत्रिका में कई यादगार व खोजी खबरों के प्रमुखता से प्रकाशन में खास भूमिका निभाई। खबरों के चयन में उनके बारीक नजरिए का उनके सभी सहकर्मी कायल थे। पिछले तीन सालों से वह ‘नई दुनिया’ समाचार-पत्र के राष्ट्रीय संस्करण में बतौर संयुक्त समाचार संपादक कार्यरत थे। बेरहम वक्त ने अगर उनकी जिंदगी पर विराम नहीं लगाया होता तो वह अपने अनुभव से हिंदी पत्रकारिता को और समृद्घ करते। 

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