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नई दिल्ली ।। दुनियाभर में एक ओर जहां विभिन्न तरह की बीमारियां हर साल लाखों लोगों की जान ले लेती हैं। वहीं, ऐसे लाखों लोग भी हैं जो किन्हीं वजहों से अपने खुद के जीवन के दुश्मन बन जाते हैं और आत्महत्या जैसा कदम उठाकर समाज की संरचना, सोच और सरोकारों पर नए सिरे से बहस को जन्म देते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक विश्व में हर साल करीब 10 लाख लोग वाह्य एवं आंतरिक कारणों के चलते आत्महत्या करते हैं। औसतन हर 40 मिनट पर आत्महत्या से एक मौत और प्रत्येक तीन मिनट पर इसकी कोशिश की जाती है।

लोगों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति पर रोक लगाने और इसके प्रति जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से डब्ल्यूएचओ ने विश्वभर में 10 सितम्बर को विश्व आत्महत्या निषेध दिवस की शुरुआत की। डब्ल्यूएचओ के इस अभियान में गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) आत्महत्या निषेध अंतर्राष्ट्रीय संगठन (आईएएसपी) महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वर्ष 1960 में स्थापित इस संगठन में शामिल 50 से अधिक देशों के पेशेवर और स्वयंसेवक आत्महत्या रोकथाम के प्रयासों में अपनी सेवाएं देते आ रहे हैं।

आत्महत्या के संदर्भ में यदि भारत की बात करें तो यहां आत्महत्या के आंकड़े काफी भवायह हैं। डब्ल्यूएचओ की मानें तो भारत में हर साल करीब एक लाख लोग आत्महत्या करते हैं। डब्ल्यूएचओ के अनुसार भारत में जाहिर तौर पर आत्महत्या की रोकथाम के लिए एक राष्ट्रीय योजना की जरूरत है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक वर्ष 2009 में देश में 127151 लोगों ने आत्महत्या की। इनमें से 68.7 फीसदी लोगों की उम्र 15 से 44 वर्ष के बीच थी। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक देश में प्रत्येक दिन आठ आत्महत्याएं गरीबी की वजह से, 73 आत्महत्याएं बीमारियों से, नौ आत्महत्याएं दिवालिया घोषित होने पर हुईं।

इसके अलावा 82 आत्महत्याएं पारिवारिक समस्याओं के चलते, 10 आत्महत्याएं प्रेम सम्बंधों में नाकामी की वजह से, छह परीक्षा में असफल होने पर, सात बेरोजगारी की वजह से, 128 आत्महत्याएं 0 से 29 आयु वर्ग के बीच, 119 30 से 44 आयु वर्ग के बीच और 101 आत्महत्याएं 45 वर्ष उम्र के लोगों ने की। आत्महत्या करने वालीं 125 से अधिक महिलाओं में 69 गृहणियां थीं जबकि एक दिन में 223 पुरुषों ने आत्महत्या की।

स्वास्थ्य पेशे से जुड़े लोग आत्महत्या को नितांत निजी और जातीय मामला भी मानते हैं। वे आत्मघाती व्यवहार के लिए कई व्यक्तिगत और सामाजिक कारकों जैसे तलाक, दहेज, प्रेम सम्बंध, वैवाहिक अड़चन, अनुचित गर्भधारण, विवाहेतर सम्बंध, घरेलू कलह, कर्ज, गरीबी, बेरोजगारी और शैक्षिक समस्या को उत्तरदायी ठहराते हैं।

मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े कुछ लोगों का मानना है कि आत्महत्या की प्रवृत्ति रोकी नहीं जा सकती क्योंकि आत्महत्या की वजह ज्यादातर सामाजिक एवं व्यक्ति के परिवेश से जुड़ी होती है जिस पर व्यक्ति का बहुत ही कम नियंत्रण होता है।

शोधों में यह बात भी उभरकर सामने आई है कि आत्मघाती कदम उठाने वाले के समक्ष समस्या का एक वैकल्पिक समधान भी होता है लेकिन निराश और कुंठित व्यक्ति अक्सर आत्महत्या को अस्थायी समस्या का स्थायी निदान समझने की भूल कर बैठता है।

भारत के समक्ष जहां पहले से ही संक्रामक बीमारियां, कुपोषण, शिशु एवं मातृ मृत्यु दर और अन्य गम्भीर स्वास्थ्य समस्याएं मौजूद हैं। ऐसी स्थिति में आत्महत्या सरकार की स्वास्थ्य प्राथमिकता में शुमार नहीं हो पाती। देश की जरूरतों के हिसाब से मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं अपर्याप्त हैं। एक अरब 20 करोड़ से अधिक आबादी के लिए करीब 3500 मनोचिकित्सक हैं।

तेजी से होता शहरीकरण, औद्योगीकरण और नए परिवार का स्वरूप सामाजिक बदलाव और संकट के रूप में उपस्थित हो रहा है। समाज में पारम्परिक सहयोग व्यवस्था कमजोर होने से लोग निराशा और अवसाद के समय में अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं।

देश में मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं की कमी की वजह से ऐसे कई गैर सरकारी संगठन उभरे हैं जो आत्महत्या रोकथाम में अपनी सेवाएं देने में तत्पर हैं।

[आलोक कुमार राव]

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